Sunday, December 27, 2009

रेखा से सिफ़र तक

और मैं
फिर सिफ़र बन गया
एक वकत था
जब काल की लम्बी सड़क पर
मैं एक सिफ़र था
महज़ सिफ़र
फिर किसी के हसीन पाँव
इस सिफ़र पर पड़े
और मैं सिफ़र से
एक सीधी रेखा बन गया ...

फिर शुरू हुआ
इस रेखा का सफ़र
तेरे शहर के रंगीन चित्र पर
पर मैं अकेला नहीं था
मेरे साथ कई और रेखाएँ भी
चल रहीं थी
बिलकुल मेरे समांतर...

मैं इंतज़ार में था
संधूरी पद चाप को
औढ कर बैठा
सफ़र की होंद का
प्रशन चिन्ह पहने
बाकी रेखाओं की ही तरह ...

फिर मैंने खुद
इन्ही आँखों से देखा
एक सिफ़र को सीधी रेखा
बनते हुए
बिलकुल मेरी तरह ...

और मैं फिर
सिफ़र बन गया
फिर शुरू हुआ
काल की लम्बी सड़कों पर
इस सिफ़र का सफ़र
जमाह घटाओ की होंद से
बहुत दूर
एक
अन्नत सफ़र की तलाश में ।

Sunday, December 20, 2009

हुआ तकसीम

हुआ तकसीम कितनी वार मैं हांसिल नहीं कोई।
मैं चलता जा रहा हूँ पर मेरी मंज़िल नहीं कोई ।

मेरे अंदर मुहब्बत करने वाला आदमी था जो ,
वो अपनी मौत ही मारा गया कातिल नहीं कोई ।

बड़ा सोचा था बस तैरेंगे आँखों के सुमन्दर में ,
मगर डूबे तो फिर आया नज़र साहिल नहीं कोई ।

हमेशा नींद के दरवाज़े पे मैं ठहर जाता हूँ ,
मुझे लगता मेरे खाबों में भी महफ़िल नहीं कोई ।

खुदा के पास रहता हूँ उसी के साथ चलता हूँ
वो मुझ को फिर भी कहता है मेरा कामिल नहीं कोई ।


हमारे मन में लगते हैं हजारों रोज़ ही मेले ,
हमारे साथ तनहाई में यु शामिल नहीं कोई ।

Thursday, December 10, 2009

एक परदा है

एक परदा है
भीतर ही भीतर
लटक रहा
मूलाधार से सहस्रार तक
सात छल्ले घूम रहें है
अपने सफर में
धरती की तरह
एक सीधी रेखा में
एक महा सूर्य के इर्द -गिर्द
बाहर से इक आवाज़ आती है
जो कह रही है
उसे महा -सूर्य दिखता नही
ऊर्जा घूमती हुई महसूस नही होती
निगल गयी हैं सब
दो आँखे खुशक सी
बोल रहीं हैं भीतर
सब भ्रमजाल है ....

तीसरी आँख जख्मी है
फ़िर भी तर है
आंसूओं से
बाहर देखती है
कुछ भी साफ दिखता नहीं
कुछ हो रहा है
पल पल बेहोशी की यात्रा में लींन है
एक दौड़ है
सभी दौड़ रहें हैं
कहाँ जाना है
कुछ पता नहीं
रो रही है तीसरी आँख
देख रही है
बाहर का भ्रमजाल ....

एक परदा है
दोनों और ज़िन्दगी है
इक दूजे से झगड़ रही है
अपने अपने भ्रमजाल को
कोस रही है
परदा गिरने तक
पारदर्शी होने तक ॥

Saturday, November 28, 2009

गिला

ज़िन्दगी के जूऐ में
सब हौंसले हार के
घर परत आना
गली के मोड़ पे
बापू की खांसी पहचान लेना
घर के दरवाज़े से
माँ की आंहे सुन लेना
किसी कोने में उड़ते
बहन के आंसू देख लेना
दीवार में फसें छोटे भाई के
हाथ पकड़ लेना
कुछ इस तरह ही होता है
जब बरसों बाद
घर से अपनी रोशनी ढूँढने गया
घर का चिराग
किसी सुबह को
दुनिया के तमाम अंधेरे
लेकर लौट आए
और अपनी आंखों से
खुश्क सा गिला करे ... ।

Sunday, November 22, 2009

सत्यवादी

वो जब भी चीखता
तो बस होठों तक चीखता
और जब भी रोता
दिल की भीतरी परतों तक रोता
उसकी आंखों की उदासी में
बेचैनी भी थी
और गयी रात का सपना भी
जो रात भर
उसके साथ होली खेलता रहता
उसकी जीभ पर
कई अनकहे शब्द थे
जो उसके अपने ही
खून से लथपथ थे
पर फ़िर भी वो जी रहा था
अपनी खामोशी के क़त्लगाह में
यहाँ और कोई भी नही था
वो ख़ुद भी नही ... ।

Wednesday, November 11, 2009

पत्थरों के इन घरों में

पत्थरों के इन घरों में तो नज़ाकत ही नहीं ।
किस तरह का शहर है जिस में मुहब्बत ही नहीं

नाम ना लूँगा कभी बस भूल जाऊँगा उसे ,
पर यह लगता है मेरी ऐसी तबीयत ही नहीं।

पहले आंखों में मुहब्बत फ़िर बहारें पतझडे ,
इस जगह कोई भी ऐसी तो रवा
यत ही नहीं ।

जब किसी ने हाल पुछा अपना ये उत्तर रहा ,
हाल अपना ठीक है बस दिल सलामत ही नहीं ।

सब उमीदों के दिए मैं तो भुझाने को चला ,
अब कोई आएगा लगता ऐसी सूरत ही नहीं ।

अब आज़ादी ही आज़ादी हर तरफ है दोस्तो,
अब किसी दिल की किसी दिल पे हकुमत ही नहीं।



Monday, November 9, 2009

तलाश

आज उसको
किसी की
तलाश थी... क्योके
वो पहली वार गुम हुआ था
अजनभी चिहरे भी आज उसको
अपने अपने लगते
पर वो अपनापन
उसके दिल की अंदरूनी परतों से
बाहर ना आ सका
ख़ुद से घबराकर
आख़िर उसने आवाज़ दी
सभी अजनबी चिहरे
उसकी तरफ दौड़े
अपना अपना रास्ता
पूछने के लिए ... ।

Saturday, November 7, 2009

कविता

इन्कलाब की और
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आज उसने अपने नीचे से
वो विछोना भी निकाल दीया
जिसपे उसके
पाक जिस्म का
नकशा था ...

देखते ही देखते
वो उसको अपने कन्धों पे रखकर
एक कूड़ेदान में फैंक आया
यह सोच कर
के उसकी उम्र से वो
बहुत छोटा निकला वो ...

फिर उसको अपने धर्म
का ख्याल आया
रवायतो की और ध्यान गया
फ़िर उसने उसको कूड़ेदान से उठाया
और बड़े ही प्रेमपूर्वक उसको जलाया
राख को इकठा कीया
और चल पड़ा
राजधानी के माथे पर
तिलक लगाने के लिए
लोग कहते हैं
वो कभी वापिस नही आया ... ।

Sunday, November 1, 2009

ग़ज़ल

चलो इक वार फिर से दुश्मनी में दोस्ती ढूँढे ।
किसी टूटे हुए से बांस में इक बांसुरी ढूँढे ।

मैं यूँ तो अपने अंदर उस खुदा को देखना चाँहू,
मगर उससे भी पहले क्यूं ना मन की खलबली ढूँढे ।

हमरे इश्क की तो दास्ताँ थी एक लम्हे की ,
मगर हम उम्र -भर उसमे ही अपनी ज़िन्दगी ढूँढे ।

मुहब्बत बनते बनते बन गयी विओपार सी अब तो ,
बहुत से लोग फ़िर भी हैं जो इसमे बंदगी ढूँढे ।

वो मुझ को जब भी मिलते हैं कई चिहरे लिए होते ,
मगर हम इन मखोटों में भी कितनी सादगी ढूँढे ।

चलो शब्दों में कहते हैं कोई तो दास्ताँ अपनी ,
यह हो सकता है अर्थों को कोई तशनालबी ढूँढे ।

कभी तो सोच भी मुझको हकीकत सी ही लगती है ,
जो हुया ही नही उसमे भी हम तो ज़िन्दगी ढूँढे ।

धरती माँ

धरती तो चेतन है
जागी हुई
और परिकर्मा कर रही है
सदीओं का पहन के सुनहरी मुकुट
पर आर्शीवाद देने के लिए मजबूर है
सरहद के दोनों ही तरफ़
लड़ रहे बहादुर जवानो को
क्यूके
वो तो माँ है ...

पर हम ने
इस माँ को बाँट रखा है
छोटे छोटे टुकडों में काट रखा है
चिट्टे,काले,पीले और भूरे रंगों में
इसको शिंगार के
पूरी धरती में वो रंग
ढूँढने लगते हैं
जो हमारे मन में बसा हो ...

कई वार
हम इस माँ के
पैरों के बफादार सिपाही होकर
इसके हाथों को कांट देते हैं
सर पर बारूद फैंकते हैं
जीभ को कतल कर देते हैं
और कभी कभी तो
इसका हिरदा नाप कर
उसका नामकरण कर देते हैं
अपनी ही सीमत सोच अनुसार ...

यह कैसी हमदर्दी है
कैसा प्यार है
कैसा सतिकार है इस माँ के लिए
जिसके एक हिस्से को
हम संवारना चाहते हैं
और दूसरे को
मिटाना चाहते हैं ....

धरती तो चेतन है
जागी हुई ।

Monday, October 26, 2009

ग़ज़ल

मैं लोगों ने जो पहने उन नकाबों को नही समझा ।
मैं बूड़ा आदमी बच्चों के खाबों को नहीं समझा ।

सवाले-यार था इतना के आख़िर तुम मेरे क्या हो ,
मैं अपने ही दिए लाखों जबाबों को नही समझा ।

वो ख़ुद मिलने को कहते हैं मगर आते नही मिलने ,
मैं सारी उम्मर ही उनके हिसाबों को नही समझा ।

वो मेरी हर ग़ज़ल में है वो मेरी हर नज़म बनती ,
मैं उस पे ही लिखी अपनी किताबों को नही समझा ।

वो हैं परदा-नशीं फ़िर भी हमेशा चाँद से दिखते,
मैं काले बादलों जैसे हिजाबों को नही समझा ।

मेरी किसमत के सूरज ने मूझे दीया अँधेरा है ,
मैं अब तक इतने सारे आफ्ताबों को नही समझा ।

मेरी हर रात तो उनके खिआलों में गुज़रती है ,
मैं फ़िर भी चीख़ बनकर आए खाबों को नही समझा ।

gazal

Sunday, October 25, 2009

अपने आप को

अब मैं अपने गाँव की और
चल पड़ा हूँ दोस्त
इस गाँव की एक ही राह
जिसपे एक घर
खुलता है जिसका दरवाजा
मेरी पैडों की और
ऊडीक रही है माँ
दरवाजे पे दस्तकें...

मेरे दोस्त
अब तेरी आवाज़
एकसुर नही रही
यह किसी सूखम लैय को ढूँढती
अपने ही ताने-बाने में कहीं उलझ गयी है
गुम गयी है
ख़ामोश हो गयी है
तुम्हारे कानो में फसे छोर में ....

तुम्हारे कदम अब
लड़खड़ा चुकें है
तुम्हारे अपने ही साये ने
उनको छीन लिया हैं
जिसका आकार
तुम्हारी मैं -मैं से तंग आकर
किसी तूं को
समर्पित होने जा चुका है ...

तुम्हारा मन अब
बीयाबान जंगल है
जिसके हर पेड़ पर
तुमने अपना नाम लिखना है
और उनकी असली तड़प
दबा देनी है
अपनी ही सोच के
संबोधनों के तरक में ...

इसलिये मेरे दोस्त
मेरी बे-बफाई याद मत करना
भूल जाना मुझे
मैं तो ढूँढने चला था
उस देश की राह
यहाँ मेरी मैं ख़तम होती है
यहाँ से मेरे ही भीतर बसी
तूं शुरू होती है ....

ऊडीक रही है माँ
दरवाज़े पे दस्तकें ।




Friday, October 23, 2009

कवि

यह अपने आप में अनहोनी घटना है

के वो सारी उमर लिखता रहा

कभी नज़्म ,कभी ग़ज़ल

और कभी कभी ख़त कोई ...

पर यह सच है

उसकी कोई भी लिखत

ना किसी किताब ने संभाली

न किसी हसीना के थरकते होठों ने ... ।

वो लिखता क्या था

मैं आज आपको बताता हूँ

वो लिखता था एक कथा

जो जन्म से पहले

पिता के लिंग का मादा था

और फ़िर

अपने बेटे के जिस्म

में बसा ख़ुद वो ... ।

यह हंसती हुई

गंभीर घटना तब शुरू हुई

जब उसने पहली बार

पीड़ित देखा

अपने माथे पर चमकते

चाँद के दाग का खौफ़

खौफ़ क्या था ?

बस यूँ ही जीए जाने

की आदत का एहसास ... ।

वो बर्दाश्त नही करता था

अपनी सांस में उठती पीड़ा की

हर नगन हँसी का मजाक

वो स्वीकार नही करता था

इतिहास के किसी

सफ़े पर

अपने पिछले जन्म का पाप ... ।

उसका नित-नेम

कोई कोरा -कागज़ था

और रोज़-मररा की जरूरत

हाथ में पकड़ी हादसाओं की कलम

वो बड़ी टेडी जिंदगी जी रहा था

बे-मंजिल सफर सर कर रहा था

पर फिर भी

वो जी रहा था

लिख रहा था

और हर पल तैर रहा था

शब्दों के बीचों -बीच

आंखों के समंदर में ।

कवि

Thursday, October 22, 2009

गुमशुदा

उसको जब कविता बारे पुछा
तो वो बोला ...
कविता सोच की छत पे लगी
सीडी के पहले डंडे का नाम है
जिसपे शामिल है
अतीत के अंतिम पडाओ
जिंदगी के बोझिल से फैंसले
और कई आंतरिक पीडा के चिन्ह
जिनपे हर नाप के जूते के निशाँ हैं ... ।

फिर किसी ने उसकी
सुपनमई आंखों से झांककर
वक़्त बारे प्रशन कीया
तो वो बोला
वक़्त घंटाघर पे बैठे
उल्लू का नाम है
जिसकी आँखों में ना जाने
कितने दिनों का संताप है
कितनी रातों की तड़प है
जिनके सहारे
वो वहां बैठा
सब को निहारता रहता है ... ।

फिर किसी ने जिंदगी बारे जानना चाहा
तो वो थोड़ा ऊँचे स्वर में बोला
मेरा ही नाम जिंदगी है
वरतमान के कुछ पलों -छिनों का
आपके अंदर तक चले जाना
और फिर दुखों -सुखों के बलवले
बनकर बाहर बहना
आशाओं के दीप जलाना
और रौशनी पकड़ने की कोशिश करना ... ।

फिर एक बजुर्ग माता बोली
तूँ कुछ झुरडिया बारे भी दस
वो बोला ...
यह आपकी राहों के
अन्तिम मोड़ की तरह होती हैं
तुम इनको अपने में संजो लो
इनमे बहते पसीने को
पूरी गती से बहने दो
जोर जोर से हंसो
और इस पल -छिन
की बात करो ... ।

फिर एक फकीर बाहें फैलाकर बोला

समाधी क्या है ?

वो बोला

समाधी सीड़ी-सीड़ी

चड़ने की कोशिश नहीं

यह तो हर पल के

उस पार जाने का नाम है

हिरदे-चक्र में बंद अपने प्रीतम को

खुली हवाओं में छोड़ने की तड़प है

और हर सरहद के पार

अचेतन से चेतन तक का सफर है ... ।

फिर एक चुप सी औरत

उस के पास आती है

रोते -रोते पूछती है

किसी का देश छोड़ आना

किसी का शहर छोड़ आना

अपने आपसे कितना इन्साफ है ?

वो कुछ नही बोलता

वो थोड़ा घबराती है

फिर उसे निहारती है

और पूछती है

तुम जसबीर हो न ?

वो थोड़ा याद करता है

खामोशी में

जोर जोर से हँसता है

भीड़ की और देखता है

और फिर धीरे से कहता है

'जसबीर'?

वो तो अपने खिलाफ एक

जंग में

गुमशुदा घोषित

कर दीया गया है










Sunday, October 11, 2009

सारी दुनिया में ढूँड कर देखा

सारी दुनिया में ढूँड कर देखा ।
ख़ुद में ही गुलशन-ऐ-दहर देखा ।

सब दीवारों से बांहे निकली थी ,
जब भी मुद्दत के बाद घर देखा ।

आपके दिल से मेरे दिल तीकर ,
इतना लम्बा नहीं सफर देखा ।

जब भी दिए की रोशनी देखी,
अपने माथे के दाग पर देखा ।

उसको पडतें किताब की मानिद,
जिसको भी हमने इक नज़र देखा ।

चार ही लोग आखिरी देखे ,
फिर ना' जसबीर ' हमसफ़र देखा ।

Friday, October 2, 2009

रोज़ यूं मर मर के जीना

रोज़ यूं मर- मर के जीना ज़िन्दगी होती नही ।
हम से अब तो रोज़ ही ये खुदकशी होती नही ।

ज़र्द पत्ता हूँ बढाऊँ कांपता सा हाथ मैं ,
पर मेरी पागल हवा से दोस्ती होती नही ।

जिस की आँखों में भी झांकू भीड़ सी आये नज़र,
हम से इतने शोर में तो बंदगी होती नही ।

फूल खिलते ही गिरी हो लाश भंवरे की अगर ,
उस जगह कोई भी खुशबू बावरी होती नही ।

मैं मेरे अंदर से बोलूँ इस जगह कैसे रहूँ ,
दम मेरा घुटता यहाँ भी बंसरी होती नही ।

अब तो बस इत्हास बनना चाह रहा हर आदमी ,
अब किसी चिहरे पे कोई ताज़गी होती नही ।

पत्थरों के शहर न पत्थर बना डाला मुझे ,
अब किसी आईने से कोई दोस्ती होती नही ।

Thursday, September 24, 2009

काश वो वक़्त

काश वो वक़्त पे कभी आए ।
और फिर देर तक न घर जाए ।

घर के कोनों में ढूंढ़ता हूँ मैं ,
बीता लम्हा कोई तो मिल जाए ।

अब तो मेरा पता ही है गुम सा ,
अब वो मुझ को कहाँ नही पाए ।

दोस्तों- दुश्मनों कों क्या कहना,
हम ने तो ख़ुद से गम बड़े पाए ।

ज़र्द पत्तों का घर नही होता ,
फिर बहारों का ख़त कहाँ आए ।

ज़िन्दगी मुझ को ढूंढ़ती फिर से ,
साथ अब ले के मौत के साये ।

लोग तो यूँ ही भागे फिरते हैं ,
ख़ुद से आगे कोई कहाँ जाए ।

मैं तो बस जाम- जाम कहता हूँ ,
यूँ ही साकी के हाथ घबराए ।

मुझ को आमद अभी कहाँ होती ,
यह तो कुछ शब्द खेलने आए ।

Saturday, September 19, 2009

कर गया दर्द

कर गया दर्द मालो- माल मुझे ।
जब भी आया तेरा ख्याल मुझे ।

आज मुद्दत के बाद चुप सा लगा ,
जो था मेरा ही खुद सवाल मुझे ।

मुझ को मालुम है वो मिलेगा नही,
ढूँढना जिसको सालों-साल मुझे ।

ख्वाब के पैर तो नही थे कोई ,
नींद पर पूछे हॉल -चाल मुझे ।

फलसफा जिंदगी का कुछ भी नहीं ,
मौत से ये रहा मलाल मुझे ।

साथ तेरे हैं दोस्तों ने कहा,
पर हकीकत करे सवाल मुझे ।

बीते लम्हों का दर्द बढ सा गया ,
पूछा ' जसबीर' ने जो हाल मुझे।

Thursday, September 3, 2009

टूटा दिल तो

टूटा दिल तो दिमाग ने सोचा
राख हुए तो आग ने सोचा

इतना गहरा न जख्म दे कोई
जख्म सूखा तो दाग ने सोचा

जब भी जागे मुझे भुझा देंगे
मतलबी सब ,चिराग ने सोचा

जब मेरा घर ही जल गया सारा
तब ही मल्हार राग ने सोचा

सारी दुनिया में ढूंड कर देखा
घर चले तो विराग ने सोचा

अब तो जसबीर बच नही सकता
छोड़ आए सुराग ने सोचा

Saturday, August 29, 2009

है अँधेरा हर तरफ़

कब कहाँ कैसे हुआ कुछ भी पता चलता नहीं
है अँधेरा हर तरफ़ दीया कोई जलता नहीं

आज तेरा वक़्त है तूँ जान ले इतना मगर
वक़्त का कब वक़्त आ जाए पता चलता नहीं

मैं बड़े से पेड़ के साये तले इक बीज हूँ
जो महज संभावना है पर कभी पलता नहीं

जिसको भी मिलता हूँ लगता है कहीं देखा हुआ
खाक किस किस भेस में मिलती पता चलता नहीं

उम्मर भर पीता रहा हूँ जल्द ही जल जाऊँगा
पर बड़ा कम्बखत दिल हूँ आग में जलता नहीं

मैं सुनूँ आवाज़ तेरी अपने ही अंदर कहीं
पर तूँ अंदर है कहाँ मेरे पता चलता नहीं

तुम जला दोगे मुझे पर शब्द मेरे ना जलें
मैं किताबे जिंदगी का हूँ सफा जलता नहीं

लोग मेरी दोस्ती पे कर रहें हैं फ़खर सा
सब को बस ये भरम है जसबीर तो छलता नहीं

Saturday, August 22, 2009

कब कहाँ

कब कहाँ कैसे हुआ कुछ भी पता चलता नहीं
है अँधेरा हर तरफ़ दीया कहीं जलता नहीं

आज तेरा वक़्त है तुम जान लों इतना मगर
वक़्त का कब वक़्त आ जाए पता चलता नहीं

मै सुनूँ आवाज़ तेरी अपने ही अंदर कहीं
पर तूं अंदर है कहाँ मेरे पता चलता नहीं

जिसको भी मिलता हूँ लगता है कहीं देखा हुआ
खाक़ किस किस भेस में मिलती पता चलता नहीं

तुम जला दोगे मुझे पर शब्द मेरे ना जले
मैं किताबे -जिंदगी का हूँ सफा जलता नहीं

Saturday, August 15, 2009

अब तेरा नाम

तूँ ही बाहर है तूँ ही अन्दर है
अब तेरा नाम ही लबो पर है

डूब जाऊँगा मैं कहीं उसमें
तेरी आंखों में जो समुन्दर है

सब से करते रहे मुहब्बत सी
बस यह इल्ज़ाम ही मेरे सर है

दिल में अब और कुश नही अब तो
एक लूटा हुआ सा मन्दिर है

ज़िन्दगी क्या सलूक करती है
सब का अपना यहाँ मुक़दर है

आज जसबीर आयेगा लगता
रोज़ ही सोचता मेरा घर है

Friday, August 7, 2009

आज कल

जो तेरे आस पास रहता है
ज़िन्दगी भर उदास रहता है

उनसे जब चाँद बातें करता है
हाथ अपने गिलास रहता है

दोस्तों दुश्मनों को परखा है
फिर भी इक नाम खास रहता है

एक लम्हा हूँ अब मुझे जी लो
आखरी ही तो सांस रहता है

घर के अंदर तो सब लगे ठहरा
घर के बाहर का घास रहता है

यूँ तो जसबीर जल गया सारा
बस ज़रा दिल के पास रहता है

Saturday, August 1, 2009

दर्द जब से

दर्द जब से हुआ है अम्बर सा
दिल हमारा हुआ समुन्दर सा

मेरे माथे पे जल रहा दीया
जैसे हो मयकदे में मन्दिर सा

तीर आँखों पे सब के लगते हैं
कौन जीता है पर स्वयंवर सा

तूँ कहाँ ढूंढ़ने मुझे निकला
मैं नहीं हूँ किसी अडम्बर सा

कह रहा है मुझे वो आईने से
अब तूँ लगता नहीं सिकंदर सा

जिंदगी अब के साल यूं गुज़री
हादसों से भरा कैलेंडर सा

Friday, July 17, 2009

अब तो मैं

अब तो मैं तेरे सहारे भी संभल सकता नहीं
थक गया हूँ दौड़ कर अब और चल सकता नहीं

वो जो इतना चमकते हैं वो चुराते रौशनी
मैं अँधेरा हूँ किसी की हो नक़ल सकता नहीं

एक दिन छुआ छूयाई में उसे भी खो दिया
वो जो कहता था के सूरज आज ढल सकता नहीं

अजनबी बन के ही मिलना जब कभी मिलना उसे
भावनाओ का कभी फिर हो कतल सकता नहीं

उसने राहें छीन लीं हैं पर उसे मालुम नहीं
ख्वाब तो फिर ख्वाब हैं उनको निगल सकता नहीं

एक उलझन से निकलकर तुम सफल हो किस तरह
उलझनों का ताज सिर ऊपर पिघल सकता नहीं

Friday, July 10, 2009

दोस्तों से अब

दोस्तों से अब कोई भी मशवरा होता नहीं
इसलिए उनकी बगल में भी छुरा होता नहीं

पेड़ पत्त्ते बांसुरी है झरने का संगीत भी
यह इल्लाही गीत है जो बेसुरा होता नहीं

तुम किसी के इशक में मरते हुए जीओ अगर
पाओगे ऐसा मज़ा जो किरकरा होता नहीं

अपने अंदर जा रहा है हर कदम जो आदमी
वो तेरी दुनिया का पागल सिरफिरा होता नहीं

मेरे मन के इक मकां में जो किराएदार है
उसके जैसा आदमी सब में बुरा होता नहीं

Sunday, June 7, 2009

वो मुझको पहनकर

वो मुझको पहनकर जब अपने घर को लौट जाते हैं
तो हर दीवार को आईना समझकर मुस्कराते हैं

बना डालें तेरी तस्वीर मिलकर एक दूजे से
वो तारे इस तरह भी रात को कुछ तिलमिलाते हैं

वो कैसे खोलें दरवाजे अगर चुपचाप हो दसतक
हवा की उँगलियाँ लेकर लुटेरे भी तो आते हैं

अभी हैं इस जगह ना जाने कल फिर किस जगह होंगे
कदम मेरे बिना मुझको लिए ही दौड़ जाते हैं

बसाया है मुझे आँखों में आँसू की तरह उसने
मुझे बस देखना वो कब मुझे मोती बनाते हैं

Sunday, May 31, 2009

भीतर का सूर्य

जब भीतर
सूर्य उदय होता है
चेतना समय सीमा से
पार चली जाती है
मन के हर दरवाज़े से
नकली बोध
बाहर भागता है
जिसम उस वकत
पहली वार जागना सीखता है
द्वन्द थक हार कर
बैठ जाता है
तब हर शै जागती हुई
अपने आप में संयुकत
महसूस होती है
कहीं कोई बटवारा नही होता
एक सदीवी मौन
भीतर ही भीतर सीडियाँ
उतरता है ...
तब सब कुछ महज़
ख़ामोश सा हो जाता है
जब भीतर का सूर्य
चेतना के सिर पे होता है

Saturday, May 23, 2009

ज़िन्दगी ऐसे मिली

ज़िन्दगी ऐसे मिली जैसे सजाएं ही मिलें
फिर भी लम्बी उमर हो ऐसी दुआएं ही मिलें

अब सभी रिश्तों में गर्मी सी नज़र आए मुझे
मैंने ये सोचा ही कयों ठंडी हवाएं ही मिलें

दूर जाता हूँ कहीं ख़ुद से निकलकर जब कभी
मुझ को फिर मेरे लिए मेरी सदायें ही मिलें

सब के चेहरों पे बहारें ही बहारें थी खिलीं
जब ज़रा झाँका किसी अंदर खिजाएं ही मिलें

पास अपने हो सभी कुछ तो जियेंगे ज़िन्दगी
पर सभी कुछ में मुझे हंसती क्जायें ही मिलें

Friday, May 22, 2009

पता होता तो

पता होता तो हम ऐसा कभी दिलदार ना करते
मुहब्बत का किसी से भी कभी इज़हार ना करते

अगर आना उन्हें होता तो दरिया चीर कर आते
तूफां से दिल में गर उठते किनारे यार ना करते

कभी तुम आज़माते तो हमारे इशक की अज़्मत
कभी फिर मांगते तुम जान हम इनकार ना करते

हमारी आँख से आँसू रवां होते ना फिर ऐसे
अगर ख़ुद को वफा के नाम पे बेज़ार ना करते

अगर होता उन्हें पासे वफ़ा मेरी मुहब्बत का
तो मेरी पीठ पर वो इस तरह से वार ना करते

Saturday, May 16, 2009

जब से

जब से अपने सितारे गर्दिश में
तब से सारे सहारे गर्दिश में

मैं समुन्दर में इक समुन्दर हूँ
मेरे सारे किनारे गर्दिश में

याद वो उम्मर भर रहे मुझको
जो थे लम्हे गुजारे गर्दिश में

मेरे हिस्से ना कहकशा आया
घर की छत के नज़ारे गर्दिश में

दूर तक अब कोई नही दिखता
मैं ही मैं को पुकारे गर्दिश में

सब की आँखों पे खाक के परदे
कौन किसको निहारे गर्दिश में

Friday, May 8, 2009

सुनों जसबीर

सुनों जसबीर
मैं तुम्हें ढूंढने निकला हूँ
चेतन व अचेतन
के बीच बसे
छोटे से अन्तराल में
यहाँ ना नींद है
ना जागरण
ना झूठे चिहरे
ना कोई रंग
ना रूप
ना समय न स्थान
इस छोटे से अन्तराल में
मुझे तेरे
उस
मौलिक चिहरे की
तलाश है -जसबीर
जो किसी से
कहीं भी सम्बंधित नहीं
जो किसी भी रिश्ते का नाती नहीं
जो तेरे साथ
कहीं अकेला है
द्वंदरहत
ना कटा हुआ और
ना कहीं से
टूटा हुआ
इस लिए जसबीर
तूँ जियादा से जियादा
इसी अन्तराल में रहा कर
यहाँ ना दुख है
ना सुख है
ना आसूओं का से़लाब है
ना मुस्कराहट का सवाल है
ना जीवन है
ना मौत
क्यों के
मैं तुम्हें ढूंढने निकला हूँ
चेतन व अचेतन के बीच बसे
छोटे से अन्तराल में





Sunday, May 3, 2009

बेशक रहा न कोई

बेशक रहा न कोई गमखार ज़िन्दगी में
फिर भी खिले से रहना दरकार ज़िन्दगी में

टुकडों में बट गया है अंदर जो आदमी था
कैसे करे किसी से इकरार ज़िन्दगी में

बन काफ्ला चले थे फिर रह गए अकेले
सपनों को कैसे करते साकार ज़िन्दगी में

मएखार मिल गए थे कुश रास्ते में मुझको
बदले नज़र से आए आसार ज़िन्दगी में

ना वो ही बेवफा थे ना मैं ही बेवफा था
ना वकत बेवफा था हर वार ज़िन्दगी में

दिल और मन के अंदर दूरी मिटा सके ना
कितनी बदल गयी है रफ़्तार ज़िन्दगी में

एक अंतहीन कविता

आजकल वो
पैरों से लिखता है
राहों के कागज़ पर
एक अंतहीन कविता को
अन्तिम रूप देने की
इच्छा में

दरअसल वो
राख रहत
अपनी ही अस्थीआं लेकर
घूम रहा है
जीवन के इस
महासागर में शोड़ने के लिए

अक्सर वो ख़ुद को कहता है
मालूम है तुम को ...?
ये महायान धरती का
लेकर जा रहा तुम्हें
किस असीम की और

वो वार वार कान लगाकर
भीतर से कुश सुनने के इच्छा में
पैरों से लिखता जा रहा है
राहों के कागज़ पर
एक अंतहीन कविता ......

Saturday, April 25, 2009

मएखाना और सिर

वो मएखाने में आया

अपना सिर मेज़ पे रखा

सेवादार को हुकुम दिया

ग्लास्सी उठाई ।

एक ग्लास्सी

दो

तीन

फिर पता नही कितनी ...

जब उसको लगा के उसका सीना

और भी ताक़तवर

हो गया है

तो उसने मेज़ पर

इधर उधर हाथ मारा

और मेज़ पर पड़ा

किसी और का सिर

उठाकर

अपने घर लौट गया

Sunday, April 12, 2009

न अब कर फैंसला

न अब कर फैंसला ऐसा के जो अकसर अटक जाए
शुरू से न करो इतना शुरू के राह थक जाए

मुझे उसने कहा आकर मिलो मुझको मेरे मन में
कहीं ऐसा न हो मैं पहुंच जाऊं वो भटक जाए

खुदा को गर समझ लेते तो अब तक तुम खुदा होते
भला इससे कोई पहले ही क्यूं सूली लटक जाए

चले तो थे मेरे सपने मगर कदमों को पाते ही
कभी राहें तिलक जाएँ कभी मंजिल सरक जाए

सुना है आजकल आँखें तेरी ऐसे छलकती है
मेरा हर जाम तेरे नाम से जैसे छलक जाए

Sunday, April 5, 2009

शब्दों के जंगल

शब्दों के जंगल से गुजरे जब हवा जज़्बात की
तब कहानी याद आ जाए किसी बरसात की

एक ये दिन है के हम खामोश पत्थर की तरह
एक वो दिन बात से ही बात थी हर बात की

सारी दुनिया के अँधेरों को पहन कर मैं गया
पर मुझे मिलने नही आयी किरण प्रभात की

जुल्फें तेरी चिहरा तेरा यु भी ढकती हैं कभी
दो दिनों के बीच जैसे हो कहानी रात की

हम जिसे करना नही चाहते कभी भी याद अब
याद आती है बड़ी उस भूली बिसरी बात की

Saturday, March 28, 2009

फलसफों की रोशनी

फलसफों की रोशनी में कुछ नज़र आया नहीं
इस घने जंगल से कोई रास्ता पाया नहीं

लोग कितने ढूढने निकले खलाओ में उसे
कोन वो रहता कहा कोई पता लाया नहीं

वो जो मेरे बोनेपन पे उम्र भर हँसता रहा
आदमी वो था मेरे अंदर मेरा साया नहीं

अब जहाँ दिल की जमी है जर्द पत्तों से भरी
इस जगह कोई बहारों की तरह आया नहीं

झूमते थे जो कभी अब है घरों की कैद में
अब किसी भी पेड़ का होता घना शाया नहीं

Sunday, March 22, 2009

कलम का रहस्य

कलम का रहस्य
वो जानते हैं
जो बांस का टुकडा बन के
किसी अगम्मी फूँक का
इन्तजार करते हैं
तो जो कविता
सिर से पाँव तक
महज बांसुरी हो जाए

कलम का रहस्य
वो जानते हैं
जो अपने साये से
मुखातिब होते रहतें हैं
और तब तक
उसे देखते रहते हैं
जब तक वो सिकुडता -सिकुड़ता
महज बिन्दु न हो जाए

कलम का रहस्य
वो जानते हैं
जिनकी कपाल और एडी के बीच
ऊर्जा की तार बंधी होती है
जिसपर पक्षी बैठते हैं
नाचते हैं ,गातें हैं
और एक अजब ही
नाद पैदा करते हैं


Saturday, March 14, 2009

तुम ने मंजिल

तुम ने मंजिल सोच ली हो रास्ता लाये कोई
किस तरह इस दोस्ती को छोड़ कर जाए कोई

तुम कभी बिरहा के सहरा में तो भटके ही नही
फिर भला तेरे लिए मल्हार क्यो गाये कोई

हमने अपने ही कहीं अंदर दबा दी आग सी
अब कहाँ उठता हुआ धुंआ नज़र आए कोई

मै भला पहचान पाऊँगा कहाँ चिहरा मेरा
अब अगर माजी से मुझको छीनकर लाये कोई

एक पल तेरा हो मेरा एक पल मेरा तेरा
ये न हो दो पल खड़े हो बीच आ जाए कोई

अपने ही आप

अपने ही आप हम तो हारे थे
फिर भी तेरे कहीं ईशारे थे

तू नदी थी तो मै समुन्दर था
पर तेरे और ही किनारे थे

तूं ही तूं हर तरफ़ तेरी खुशबू
मै नही था तो ये नज़ारे थे

वो जो कहते थे तुम हमारे हो
वकत पड़ने पे कब हमारे थे

तूं तो ख़ुद चाँद थी मगर मेरे
वकत की धूल में सितारे थे

तुम तो

तुम तो अपने मुकाम तक पोहंची
मेरी हर शाम जाम तक पोहंची

सोजिशे -दिल वो सोच बन जाती
जो भी मेरे कलाम तक पोहंची

अब लबे -यार फूल से लगते
पासदारी इनाम तक पोहंची

उनकी आँखों ने मुझको सहलाया
उंगलिया पर कमान तक पोहंची

तुम ने आवाज कैसे दी मुझ को
छोड़ मुझको तमाम तक पोहंची

कागजों के फूल

कागजों के फूल में क्या कुश खिला करता नही
रंगे-खुशबू इस तरह से पर मिला करता नही

जांनता हूँ अब सभी शब्दों के सीमत अर्थों को
अब किसी भी बात का तो मै गिला करता नही

बाँटने को बाँट लेते हैं मगर मुझ को पता
जिन्दगी का बोझ सर से यूं हिला करता नही

तुम दबा दारू करो या फिर दुआ दया करो
चाक हुआ पर जिगर फिर से सिला करता नही

अब जरूरत ही कहाँ रखें कबूतर घर मै हम
अब कोई चिट्ठी मिले या ना गिला करता नही

वो तेरे

वो तेरे जो करीब बैठा है
दिल में उसके रकीब बैठा है

मै बिना बोझ दौड़ना चाहू
फिर भी सर पे नसीब बैठा है

वो जिसे तुम अमीर कहते हो
उसके अंदर गरीब बैठा है

वो जो खुदसे ही बाते करता है
साथ उसके अदीब बैठा है

देखकर मुझको लोग कहते है
हर तरफ़ ही अजीब बैठा है

Friday, March 13, 2009

पल दो पल

ग़ज़ल
पल दो पल में बदल नही जाते
वकत के साथ ढल नही जाते

जब से मै तुम से दूर हूँ तबसे
मुझसे मेरे ही शल नही जाते

मै फलक से गिरा जमी पर हूँ
यु ही पत्थर पिगल नही जाते

तब तलक आँखे सरद रहती है
जब तलक आंसू जल नही जाते

जो मिले आज कल वो विछड़एंगे
ऐसे मौसम तो टल नही जाते

Monday, February 9, 2009

वो कहाँ मिले

वो कहाँ मिले मुझे तू बता
तेरे रास्ते तो ख़फा हुए
वो किसे कहे मिले दर्द जो
तेरे राहबर तो जुदा हुए

इसे खेल समझो तो ज़िन्दगी
में जो जीत है वो भी हार है
गए जीत कर जो जहाँ कभी
तूने कब सुना वो ख़ुदा हुए

न कोई जहां में बना मेरा
न किसी ने मुझको कहा मेरा
वो कहाँ के लोग थे जो यहाँ
एक दूसरे की दुआ हुए

दिखे फ़र्क न मुझे अब कोई
न कोई वफ़ा न कोई जफ़ा
वो कभी जो मुझ से वफ़ा हुए
वो ही ज़िन्दगी की सज़ा हुए

ज़िन्दगी इक हबाब

ज़िन्दगी इक हबाब जैसी है
फिर भी दरिया के ख़्वाब जैसी है

मै तो घंटों ही रोज़ पढ़ता हूँ
याद तेरी किताब जैसी है

चाँद आधा भी क्या क़यामत है
फिर घटा भी हिजाब जैसी है

उम्र-भर का सवाल था मेरा
पर तेरी चुप जवाब जैसी है

हमको मालूम नहीं वफ़ा तेरी
बेवफ़ाई ख़िताब जैसी है

ज़िन्दगी उन को रास आती है
बात जिनमें उक़ाब जैसी है

तेरे हाथों में ज़हर भी मुझ को
लग रही कुछ शराब जैसी है

अब कोई शोर न सुनाई दे
दिल की धड़कन रबाब जैसी है

Sunday, February 8, 2009

मेरी ग़ज़ल

जागते शब्दों को जब से जी रही मेरी ग़ज़ल
तब से अर्थों पे फ़िदा सी ही रही मेरी ग़ज़ल

जिस जगह गुज़रे ज़माने का जमा धुआँ हुआ
उस जगह पर आग बन के भी रही मेरी ग़ज़ल

हर कदम पर चोट खाई फिर मुझे मालूम हुआ
पत्थरों में मोम बनकर ही रही मेरी ग़ज़ल

अब जहाँ बस एक सुनेपन बिना कुछ भी नहीं
जाने किस माहोल को अब जी रही मेरी ग़ज़ल

ना कोई मतला जहाँ है न कोई मक़ता जहाँ
एक अनजाना तख़ल्लुस ही रही मेरी ग़ज़ल