Monday, February 9, 2009

वो कहाँ मिले

वो कहाँ मिले मुझे तू बता
तेरे रास्ते तो ख़फा हुए
वो किसे कहे मिले दर्द जो
तेरे राहबर तो जुदा हुए

इसे खेल समझो तो ज़िन्दगी
में जो जीत है वो भी हार है
गए जीत कर जो जहाँ कभी
तूने कब सुना वो ख़ुदा हुए

न कोई जहां में बना मेरा
न किसी ने मुझको कहा मेरा
वो कहाँ के लोग थे जो यहाँ
एक दूसरे की दुआ हुए

दिखे फ़र्क न मुझे अब कोई
न कोई वफ़ा न कोई जफ़ा
वो कभी जो मुझ से वफ़ा हुए
वो ही ज़िन्दगी की सज़ा हुए

ज़िन्दगी इक हबाब

ज़िन्दगी इक हबाब जैसी है
फिर भी दरिया के ख़्वाब जैसी है

मै तो घंटों ही रोज़ पढ़ता हूँ
याद तेरी किताब जैसी है

चाँद आधा भी क्या क़यामत है
फिर घटा भी हिजाब जैसी है

उम्र-भर का सवाल था मेरा
पर तेरी चुप जवाब जैसी है

हमको मालूम नहीं वफ़ा तेरी
बेवफ़ाई ख़िताब जैसी है

ज़िन्दगी उन को रास आती है
बात जिनमें उक़ाब जैसी है

तेरे हाथों में ज़हर भी मुझ को
लग रही कुछ शराब जैसी है

अब कोई शोर न सुनाई दे
दिल की धड़कन रबाब जैसी है

Sunday, February 8, 2009

मेरी ग़ज़ल

जागते शब्दों को जब से जी रही मेरी ग़ज़ल
तब से अर्थों पे फ़िदा सी ही रही मेरी ग़ज़ल

जिस जगह गुज़रे ज़माने का जमा धुआँ हुआ
उस जगह पर आग बन के भी रही मेरी ग़ज़ल

हर कदम पर चोट खाई फिर मुझे मालूम हुआ
पत्थरों में मोम बनकर ही रही मेरी ग़ज़ल

अब जहाँ बस एक सुनेपन बिना कुछ भी नहीं
जाने किस माहोल को अब जी रही मेरी ग़ज़ल

ना कोई मतला जहाँ है न कोई मक़ता जहाँ
एक अनजाना तख़ल्लुस ही रही मेरी ग़ज़ल