Saturday, March 28, 2009

फलसफों की रोशनी

फलसफों की रोशनी में कुछ नज़र आया नहीं
इस घने जंगल से कोई रास्ता पाया नहीं

लोग कितने ढूढने निकले खलाओ में उसे
कोन वो रहता कहा कोई पता लाया नहीं

वो जो मेरे बोनेपन पे उम्र भर हँसता रहा
आदमी वो था मेरे अंदर मेरा साया नहीं

अब जहाँ दिल की जमी है जर्द पत्तों से भरी
इस जगह कोई बहारों की तरह आया नहीं

झूमते थे जो कभी अब है घरों की कैद में
अब किसी भी पेड़ का होता घना शाया नहीं

Sunday, March 22, 2009

कलम का रहस्य

कलम का रहस्य
वो जानते हैं
जो बांस का टुकडा बन के
किसी अगम्मी फूँक का
इन्तजार करते हैं
तो जो कविता
सिर से पाँव तक
महज बांसुरी हो जाए

कलम का रहस्य
वो जानते हैं
जो अपने साये से
मुखातिब होते रहतें हैं
और तब तक
उसे देखते रहते हैं
जब तक वो सिकुडता -सिकुड़ता
महज बिन्दु न हो जाए

कलम का रहस्य
वो जानते हैं
जिनकी कपाल और एडी के बीच
ऊर्जा की तार बंधी होती है
जिसपर पक्षी बैठते हैं
नाचते हैं ,गातें हैं
और एक अजब ही
नाद पैदा करते हैं


Saturday, March 14, 2009

तुम ने मंजिल

तुम ने मंजिल सोच ली हो रास्ता लाये कोई
किस तरह इस दोस्ती को छोड़ कर जाए कोई

तुम कभी बिरहा के सहरा में तो भटके ही नही
फिर भला तेरे लिए मल्हार क्यो गाये कोई

हमने अपने ही कहीं अंदर दबा दी आग सी
अब कहाँ उठता हुआ धुंआ नज़र आए कोई

मै भला पहचान पाऊँगा कहाँ चिहरा मेरा
अब अगर माजी से मुझको छीनकर लाये कोई

एक पल तेरा हो मेरा एक पल मेरा तेरा
ये न हो दो पल खड़े हो बीच आ जाए कोई

अपने ही आप

अपने ही आप हम तो हारे थे
फिर भी तेरे कहीं ईशारे थे

तू नदी थी तो मै समुन्दर था
पर तेरे और ही किनारे थे

तूं ही तूं हर तरफ़ तेरी खुशबू
मै नही था तो ये नज़ारे थे

वो जो कहते थे तुम हमारे हो
वकत पड़ने पे कब हमारे थे

तूं तो ख़ुद चाँद थी मगर मेरे
वकत की धूल में सितारे थे

तुम तो

तुम तो अपने मुकाम तक पोहंची
मेरी हर शाम जाम तक पोहंची

सोजिशे -दिल वो सोच बन जाती
जो भी मेरे कलाम तक पोहंची

अब लबे -यार फूल से लगते
पासदारी इनाम तक पोहंची

उनकी आँखों ने मुझको सहलाया
उंगलिया पर कमान तक पोहंची

तुम ने आवाज कैसे दी मुझ को
छोड़ मुझको तमाम तक पोहंची

कागजों के फूल

कागजों के फूल में क्या कुश खिला करता नही
रंगे-खुशबू इस तरह से पर मिला करता नही

जांनता हूँ अब सभी शब्दों के सीमत अर्थों को
अब किसी भी बात का तो मै गिला करता नही

बाँटने को बाँट लेते हैं मगर मुझ को पता
जिन्दगी का बोझ सर से यूं हिला करता नही

तुम दबा दारू करो या फिर दुआ दया करो
चाक हुआ पर जिगर फिर से सिला करता नही

अब जरूरत ही कहाँ रखें कबूतर घर मै हम
अब कोई चिट्ठी मिले या ना गिला करता नही

वो तेरे

वो तेरे जो करीब बैठा है
दिल में उसके रकीब बैठा है

मै बिना बोझ दौड़ना चाहू
फिर भी सर पे नसीब बैठा है

वो जिसे तुम अमीर कहते हो
उसके अंदर गरीब बैठा है

वो जो खुदसे ही बाते करता है
साथ उसके अदीब बैठा है

देखकर मुझको लोग कहते है
हर तरफ़ ही अजीब बैठा है

Friday, March 13, 2009

पल दो पल

ग़ज़ल
पल दो पल में बदल नही जाते
वकत के साथ ढल नही जाते

जब से मै तुम से दूर हूँ तबसे
मुझसे मेरे ही शल नही जाते

मै फलक से गिरा जमी पर हूँ
यु ही पत्थर पिगल नही जाते

तब तलक आँखे सरद रहती है
जब तलक आंसू जल नही जाते

जो मिले आज कल वो विछड़एंगे
ऐसे मौसम तो टल नही जाते