Saturday, April 25, 2009

मएखाना और सिर

वो मएखाने में आया

अपना सिर मेज़ पे रखा

सेवादार को हुकुम दिया

ग्लास्सी उठाई ।

एक ग्लास्सी

दो

तीन

फिर पता नही कितनी ...

जब उसको लगा के उसका सीना

और भी ताक़तवर

हो गया है

तो उसने मेज़ पर

इधर उधर हाथ मारा

और मेज़ पर पड़ा

किसी और का सिर

उठाकर

अपने घर लौट गया

Sunday, April 12, 2009

न अब कर फैंसला

न अब कर फैंसला ऐसा के जो अकसर अटक जाए
शुरू से न करो इतना शुरू के राह थक जाए

मुझे उसने कहा आकर मिलो मुझको मेरे मन में
कहीं ऐसा न हो मैं पहुंच जाऊं वो भटक जाए

खुदा को गर समझ लेते तो अब तक तुम खुदा होते
भला इससे कोई पहले ही क्यूं सूली लटक जाए

चले तो थे मेरे सपने मगर कदमों को पाते ही
कभी राहें तिलक जाएँ कभी मंजिल सरक जाए

सुना है आजकल आँखें तेरी ऐसे छलकती है
मेरा हर जाम तेरे नाम से जैसे छलक जाए

Sunday, April 5, 2009

शब्दों के जंगल

शब्दों के जंगल से गुजरे जब हवा जज़्बात की
तब कहानी याद आ जाए किसी बरसात की

एक ये दिन है के हम खामोश पत्थर की तरह
एक वो दिन बात से ही बात थी हर बात की

सारी दुनिया के अँधेरों को पहन कर मैं गया
पर मुझे मिलने नही आयी किरण प्रभात की

जुल्फें तेरी चिहरा तेरा यु भी ढकती हैं कभी
दो दिनों के बीच जैसे हो कहानी रात की

हम जिसे करना नही चाहते कभी भी याद अब
याद आती है बड़ी उस भूली बिसरी बात की