Saturday, February 26, 2011

सिरजना-------8

जब भी कभी
लिखने बैठता हूँ
मन का घोडा
दोड़ता है
चारों और
बीतीं घटनाएँ
अपनी अपनी
जगह पर बैठती
पासा फैंकती है .....

घोडा सीधा दोड़ता है
मन में बसे लोग
आपस में
वार्तालाप करतें हैं
दूर कहीं
कोई गुम सा सन्नाटा
बाहें उठाकर
नाचने लगता है ........

घोडा
दूसरी दिशा में
दौड़ना शुरू करता है
कई तरह के रंग
उभरते हैं
उन्ही रंगों में से
निकलता घोडा
कई रंगों में रंगा जाता है .....

घोडा दिशा बदलता है
मेरे भीतर से
कुछ निकलकर
उसके पीछे
भागने लगता है
उसके मुह का
स्वाद बदलता है
पर वो दोड़ता दोड़ता
अपनी मंजिल की और
बढता है .......

घोडा फिर
और तेज दोड़ता है
और जब वो
जीतने के करीब होता है
बस
बस उसी वकत वो
दिशाहीन ह जाता है
शायद वहीं से फिर
चारों दिशाएँ
निकलतीं है ........

जब भी... कभी
मैं लिखने बैठता हूँ
तो मन का घोडा
पता नहीं
किस किस को जिताता है
पर ...
मुझे हमेशा
लिखनी पड़ती है
एक हार की गाथा
.........
सच कहूं
मुझे हार से डर लगता है
..........
सच कहूं
मुझे लिखने से डर लगता है

Thursday, February 24, 2011

हे कविता समता 7

हे कविता
समय के इस अंतराल में
जितना मैं बुढ़ापे की और बढ़ा
उतना तुम जवां हुई
मैं जितना कापां
उतना तुम सिथिर रही
मेरे चिहरे पर
जितनी लकीरें उभरी
उतना तुम संजीव होकर
मेरे इर्ध-गिर्ध घूमती रही
-------------
मैं तुम से
दूर रहने का परियास करता रहा
पर तुम मेरे बहुत करीब रही
मैंने तुम्हे शब्दों से दूर रखा
पर तुम मेरे लिए
आकाशी शब्द
ढूंढ ढूंढकर लाती रही
.....................
पर अब
जब मैं एक
लम्बे समय के बाद
तुम्हारे पास आया हूँ
तो मुझे महसूस हुआ के
इतना
संवेदनहीन नहीं हूँ मैं
..........................
हे कविता
अब जब तुम
फिर मेरे करीब हो
तो मुझे लगता है
जाने की कोई
पारीभाषा नहीं होती ।

Sunday, February 20, 2011

कैवल्य समता 6

कैवल्य
वो संवेदना के शहर से
चुप की भाषा बोलती
इस जिस्म के गाँव में
चांदनी सी तरंगे घोलती
गलीओं की अंतड़ीओं में
पदचाप की उर्जा टटोलती
निरंतर गातीशील है
पैरों की उंगलीओं की कलमों से
माथे पर लिखी हुई
इबारत की
तीसरी आँख तक ...

मैं तो फिसलता रहा हूँ
हर जनम
अप्पने ही जिस्म से
और गिरता रहा हूँ
कहीं बहुत दूर
भटकता रहा हूँ
अप्पने आप को पड़ने के लिए
दौड़ता रहा हूँ
अप्पने आप को छूने के लिए
उस सिफ़र की तलाश में
जो मेरी तीसरी आँख बनता
माथे पर लिखी इबारत
पड़ने के लिए
मेरी रोशनी बनता ......

सदीयां बीती
वकत गुज़रे
समय बदला
स्थान बदले
पर मैं ....मैं ही रहा
तूँ ना बन सका
हर वार कोई
दूर बहुत दूर से
पास आकर पुकारता रहा
मैं हर वार
अपनी किसी तृष्णा के रंगों से
कैनवास को सजाता रहा
तृप्ति के शब्दों को
किताबों में बुलाता रहा
ना जाने कौन सी
गिनती में गुमसुम
मैं हर आवाज़ को
दरकिनार करता रहा .......

लेकिन अब
कुदरत के इस लम्बे चौड़े
अदृश्य शिलालेख पर
मैंने पहली वार
वो नाम पड़ने की कोशिश की है
जो हमेशा से मेरा था
पहली वार
मैं तृष्णा की ज़मीन से उठकर
अप्पने ही भीतर से निकले
रमणीक राह पर
बे-पैर होकर चला हूँ
मुकती की तरफ
कैवल्य की और
मुझे देख लो
जान लो
पहचान लो
मैं वकत के आईने के सामने
आख़री वार खड़ा हूँ ....... ।

कोई पुकार रहा है
संवेदना के शहर से ।

जब से समता 5

जब से मैं  तेरे साज़ की चुप हूँ ।
तब से अपनी आवाज़ की चुप हूँ ।

मुझ को मालूम है  कहाँ जाना ,
इस लिए हर आगाज़ की चुप हूँ ।

शब्द होते तो अर्थ मिल जाते ,
मैं तो उम्र-ए- दराज़ की चुप हूँ ।

तुम ने वादा कोई निभाया था ,
मैं तेरे उस लिहाज़ की चुप हूँ |

मैं ना सुकरात हूँ ना सरमद हूँ ,
मैं तो अपने ही राज़ की चुप हूँ ।

मैं तो 'जसबीर 'जीत पाया ना ,
इस लिए हर मुहाज़ की चुप हूँ।

ग़ज़ल..p3

मैं पत्थर हूँ मुझे जीना नहीं भगवान सा बनकर ।
मुझे रहना नहीं खुद में कोई मेहमान सा बनकर ।

कोई जीता यां हारा ख़ाक मेरी ही उडी हर पल ,
रहा मैं ज़िन्दगी की जंग का मैदान सा बनकर ।

मेरी हर सोच में रहता है यह बाज़ार दुनिया का ,
मैं अप्पने घर पड़ा रहता हूँ बस सामान सा बनकर ।

रहा हूँ मैं तेरी दुनिया में जैसे मैं नहीं कुछ भी ,
रहा मैं दूर मैं मैं से कहीं बेजान सा बनकर ।

मेरे अंदर छुपा ऐसा भी है "जसबीर " का चिहरा ,
जो मुझको रोज़ मिलता है मगर अनजान सा बनकर ।

ग़ज़ल .....५

वो मुझको पहनकर जब अपने घर को लौट जाते हैं ।
तो हर दीवार को आईना समझकर मुस्कराते हैं ।

तेरी तस्वीर बनते ही कहीं उनसे बिखर जाती ,
वो तारे इस लिए ही रात सारी तिलमिलाते हैं ।

अभी हैं इस जगह ना जाने कल फिर किस जगह होंगे,
कदम मेरे बिना मुझको लिए भी दौढ़ जाते हैं ।

बसाया है अभी आँखों में जैसे मैं कोई आँसू ,
मुझे बस देखना वो कब मुझे दरिया बनाते हैं ।

वो कैसे खोलें दरवाज़े अगर 'जसबीर' दे दस्तक ,
हवा सी उँगलियाँ लेकर लुटेरे भी तो आते हैं ।

मैं लोगों ने समता-2

मैं जो लोगों ने पहने उन नकाबों को नही समझा ।
मैं बूड़ा आदमी बच्चों के खाब्बों को नहीं समझा ।

सवाले-यार था इतना के आखिर तुम मेरे क्या हो ,
मैं अपने ही दिए लाखों जबाबों को नही समझा ।

वो ख़ुद मिलने को कहते हैं मगर आते नही मिलने ,
मैं सारी उम्र ही उनके हिसाबों को नही समझा ।

वो मेरी हर ग़ज़ल में है नुमाया और नज़्मों में  ,
मैं उस पे ही लिखी अपनी किताबों को नही समझा ।

वो हैं परदा-नशीं फ़िर भी हमेशा चाँद से लगते ,
मैं काले बादलों जैसे हिजाबों को नही समझा ।

बहुत  लोगो के जीवन में अँधेरा ही अँधेरा है ,
मैं उसके इतने सारे आफ्ताबों को नही समझा ।

यूं तो हर रात ही 'खामोश 'सी मेरी  गुज़रती है ,
मैं फ़िर भी चीख़ बनकर आए खाब्बों को नही समझा ।

रोज़ यूं समता-1

रोज़ यूं मर- मर के जीना ज़िन्दगी होती नही ।
हम से अब तो रोज़ ही ये खुदकशी होती नही ।

ज़र्द पत्ता हूँ बढाऊँ कांपता सा हाथ मैं ,
पर मेरी पागल हवा से दोस्ती होती नही ।

जिस की आँखों में भी झांकू भीड़ सी आये नज़र,
हम से इतने शोर में तो बंदगी होती नही ।

फूल खिलते ही गिरी हो लाश भंवरे की जहाँ
उस जगह कोई भी खुशबू बावरी होती नही ।

मैं मेरे अंदर से बोलूँ इस जगह कैसे रहूँ ,
दम मेरा घुटता यहाँ भी बंसरी होती नही ।

अब तो बस इत्हास बनना चाह रहा हर आदमी ,
अब किसी चिहरे पे कोई ताज़गी होती नही ।

पत्थरों के शहर में पत्थर बना जसबीर भी ,
अब किसी आईने से कोई दोस्ती होती नहीं ।

Friday, February 18, 2011

राख का संगीत

शब्द
ध्वनि
चुप
दीये जले
रौशनी हुई
...............
हर कोई
आज़ाद है
जलने के लिए
पतंगे की तरह
...................
राख का संगीत
सुनने के लिए
.................
आ जाओ
राग दीपक बज उठा है
मंडप सज चुका है ..I