Saturday, February 18, 2012

इश्क का मसीहा

हर अणु में
दिखता है
जब
इश्क का मसीहा
तो
सपने जाग जाते हैं
अपनी ही नींद के भीतर
पलों -छिनों में
चाँद निकलता है
मन के दरवाज़े से
भीतर आता है
अँधेरा मुस्कराता है
और
रोशनी के कहीं भीतर
खुद को पाता है .........


एक संवेदना है
जिस्म के
अंग अंग में
फ़ैली हुई
एक साया
मेरे ही बिसतर से
उठता है
मुझे जगाता है
और खुद को
मुझ से
दूर कहीं पाता है ........

जागे हुए
मन से
तन से
एक अर्थ उठता है
बे-शब्द दुआ
होठों पर बैठती है
प्यास बढती है
वो साया
फिर पास आता है
जिस्म के अंग अंग में
फ़ैल जाता है ............

मैं.... तूं
तूं ....मैं
सब एक सा
हो जाता है
मैं ...तूं
तूं ...मैं
के बीच
जो कुछ भी
होता है
सहजता से
दूर चला जाता है ..........

हर अणु में
दिखता है
जब ...
..इश्क का मसीहा ।

Saturday, February 4, 2012

ग़ज़ल

जब से मैं तेरे साज़ की चुप हूँ ।
तब से अपनी आवाज़ की चुप हूँ ।

मुझ को मालूम नहीं कहाँ जाना ,
इस लिए हर आगाज़ की चुप हूँ ।

शब्द होते तो अर्थ मिल जाते ,
मैं तो उम्र-ऐ -दाराज़ की चुप हूँ ।

तुम ने वादा कोई निभाया था ,
मैं तेरे उस लिहाज़ की चुप हूँ ।

मैं ना 'सुकरात' हूँ ना' सरमद 'हूँ ,
मैं तो अपने ही राज़ की चुप हूँ ।

मैं तो ' जसबीर ' जीत पाया ना ,
इस लिए हर मुहाज़ की चुप हूँ ।