Saturday, April 21, 2012

         चुप -1
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       चुप की  
         अपनी 
       आवाज़ होती है
        -------
       चुप की 
       अपनी 
       पहचान होती है 
       ..........
      जब भी 
      कभी .....हम 
      चुप को  बोलते हैं 
      तो ...
      अपने ही भीतर 
     कोई गिरह
     खोलते हैं .

चुप -२
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शब्द 
जब 
यात्रा पर होता 
तो 
कई तरंगों से 
घिरा होता 
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हवा 
पानी 
आग
धरती
आकाश
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शब्द 
हमेशा 
छोर के साथ चलता 
ना जाने 
कितनी भाषाओँ में ढलता 
.........
शब्द की
उर्जा 
पूरे
 ब्रहमांड में 
पडी होती
.........
शब्द 
जहाँ रुकता 
वहां 
चुप 
खड़ी होती . 
 
    
  

Sunday, April 1, 2012

ग़ज़ल

मैं चाहता हूँ मेरी कोई ग़ज़ल उस साज तक जाये ।।
जिसे सुनकर कोई मेरी ही दी आवाज़ तक आये ।।

मैं उसको मंजिल-ऐ - मक़सूद की जानब तो ले जाऊं ,
वो सब कल छोड़कर गर आज मेरे आज तक आये ।

मिला मुझ को नहीं कोई सिरा कैसे सफ़र करता ,
वो हर अंजाम से पहले नये आगाज़ तक आये ।

मुझे लगता है फिर तो हम भी वो आकाश छु लेंगे ,
तूं अप्पने पंख लेकर गर मेरी परवाज़ तक आये ।

मेरी किस्मत मेरा बिरहा मेरे ही सामने रोये ,
कोई लाखों में यूं बिरहा के तख्तो-ताज तक जाये ।

उने "जसबीर "अब तो मौत से डर ही नहीं लगता ,
जो पल पल के सफर में ज़िन्दगी के राज़ तक आये ।