Sunday, July 8, 2012

                  ग़ज़ल

अब तो मैं तेरे सहारे भी संभल सकता नहीं |
थक गया हूँ दौड़ कर अब और चल सकता नहीं |

वो सियारा है अगर तो रोशनी में वो जले ,
मैं अँधेरा हूँ किसी के साथ जल  सकता नहीं |


एक दिन छुआ छूयाई में ही साया खो गया  ,
मुझको लगता था मेरा  सूरज तो ढल सकता नहीं |


अजनभी हूँ अजनभीयत सी तबीयत बन गयी  ,
अब मेरा कोई भी रिश्ता मुझको छ्ल सकता नहीं  |


उसने राहें छीन लीं हैं पर उसे मालुम नहीं ,
ख्वाब तो बस  ख्वाब हैं उनको निगल सकता नहीं |


एक उलझन से निकल "जसबीर " बच ना पाओगे  ,
उलझनों का ताज तो  सर से निकल  सकता नहीं |